रायपुर।
छत्तीसगढ़ शासन के अंतर्गत वन विभाग में लंबे समय से स्थानांतरण की प्रक्रिया को लेकर भारी असंतोष और असमंजस का माहौल है। पिछले तीन वर्षों से विभागीय ट्रांसफर लगभग ठप हैं, पहले राज्य विधानसभा चुनाव और फिर हालिया लोकसभा व पंचायत चुनावों के कारण कोई बड़ा ट्रांसफर नहीं हो पाया। अब जब शासन ने ट्रांसफर की समयावधि तय की, तो कर्मचारी आशा लगाए बैठे थे कि उन्हें पारिवारिक, स्वास्थ्यगत व मानवीय कारणों पर स्थानांतरण मिल जाएगा — लेकिन हुआ इसके ठीक उलट।
ट्रांसफर फाइल समय पर पेश नहीं, जिम्मेदार कौन ?
वन विभाग के सूत्रों के अनुसार, ट्रांसफर के लिए दिए गए हजारों आवेदनों में से लगभग 300 से 600 कर्मचारियों की सूची तैयार थी। ये स्थानांतरण “सेल्फ एक्सपेंस”, “मिचुअल”, “पति-पत्नी साथ”, “गंभीर बीमारी”, या “प्रशासनिक अनुशंसा” के आधार पर किए जाने थे। लेकिन वन विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही के चलते यह सूची तय तिथि से पहले शासन को नहीं भेजी गई।
जैसे ही अंतिम समय में इनकी सूची वन मंत्रालय में अतिरिक्त मुख्य सचिव (ACS) श्रीमती रिचा शर्मा के समक्ष प्रस्तुत की गई, उन्होंने अधूरी जानकारी व प्रक्रियात्मक त्रुटियों के कारण फाइल लौटा दी। इसके बाद संशोधित फाइल पुनः भेजी गई, लेकिन तब तक 1 जुलाई की तारीख पार हो चुकी थी — और नियमानुसार ट्रांसफर की खिड़की बंद हो चुकी थी।
रिचा शर्मा की नियमप्रियता से उलझा मामला
श्रीमती रिचा शर्मा को शासन में एक सख्त और नियमों का पालन करने वाली अधिकारी के रूप में जाना जाता है। नियम से बाहर जाकर किसी कार्य को स्वीकृति देना उनके स्वभाव में नहीं है, और यही कारण रहा कि फाइल को “समन्वय” में भेज दिया गया। विभागीय कर्मचारियों के मुताबिक, समन्वय में फाइल जाना एक तरह से ट्रांसफर प्रक्रिया को लंबी प्रतीक्षा में डाल देना होता है, क्योंकि वहां से मंजूरी की संभावना मात्र 10% ही मानी जाती है।
सिर्फ 13-16 लोगों का ही क्यों हुआ ट्रांसफर ?
एक ओर जहां सैकड़ों कर्मचारी अब भी ट्रांसफर की राह देख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चुपचाप 13-16 लोगों के ट्रांसफर आदेश जारी हो गए। सवाल उठता है कि आखिर ये 13-16 लोग कौन हैं और इन्हें किस आधार पर चुना गया? क्या यह “भाग्यशाली” सूची उन लोगों की है, जो सिस्टम में पहुंच रखते हैं या फिर जिन्होंने “व्यवस्था” से “व्यवस्था” कर ली?
मानवता और जरूरतों को नजरअंदाज क्यों किया गया ?
इन 300+ आवेदनों में बड़ी संख्या में ऐसे कर्मचारी हैं जो गंभीर पारिवारिक या स्वास्थ्यगत संकटों से जूझ रहे हैं —
- किसी के माता-पिता कैंसर या किडनी की बीमारी से पीड़ित हैं
- किसी की पत्नी या पति दूसरे जिले में कार्यरत हैं और साथ रहने के लिए स्थानांतरण चाहते हैं
- कुछ कर्मचारियों को स्वयं गंभीर बीमारी है
इन सबकी आशाएं केवल समय पर नियमानुसार कार्रवाई पर टिकी थीं। लेकिन वन विभाग की ओर से लापरवाही के चलते उनका आवेदन केवल “फाइलों की धूल” बनकर रह गया।
क्या भ्रष्टाचार की कोई भूमिका ?
विभागीय चर्चा के अनुसार, जो फाइलें समन्वय में जाती हैं उनमें केवल 10% तक को ही पारित किया जाता है। बाकी की 90% फाइलें या तो रद्द हो जाती हैं या सालों तक लटकी रहती हैं। यह भी कहा जाता है कि फाइल के पार होने के लिए “किस्मत” से ज्यादा “किसी की सिफारिश” या गुप्त व्यवस्था की जरूरत होती है। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा कि नियम टूटे या नहीं, लेकिन भरोसा जरूर टूट गया है।
वन मंत्री और मुख्यमंत्री को लेना होगा संज्ञान
अब जबकि कर्मचारियों में आक्रोश बढ़ता जा रहा है, वन मंत्री मा. केदार कश्यप और मुख्यमंत्री मा. विश्नुदेव साय से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे इस मामले में हस्तक्षेप कर स्पष्ट जवाबदेही तय करें।
- आखिर फाइल समय पर क्यों नहीं भेजी गई?
- किस अधिकारी की लापरवाही से सैकड़ों कर्मचारियों की उम्मीदों पर पानी फिरा?
- सिर्फ 13-16 कर्मचारियों का ट्रांसफर कैसे और किस आधार पर हुआ?
- क्या समन्वय में भेजी गई फाइलें फिर से खोली जाएंगी या ये हमेशा की तरह बंद अलमारियों में धूल खाती रहेंगी?
निष्कर्ष: जवाबदेही और पारदर्शिता की दरकार
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में जहां संसाधनों की कमी नहीं है, वहां यदि पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी हो, तो कर्मचारियों का मनोबल टूटना स्वाभाविक है। ट्रांसफर कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि जरूरत और हक भी होता है, खासकर जब वह मानवीय आधार पर हो।
अब यह देखना शेष है कि शासन इस “लापरवाही की कीमत” कर्मचारियों को चुकाने देगा या दोषियों पर कार्रवाई कर कर्मचारियों की उम्मीदों को नया जीवन देगा।