“IFS अफसरों की ‘भ्रष्ट मंडली’ का खेल: RTI में मांगी गई जानकारी छिपाई, PCCF ने चोरों कि सरगना कि तरह आरोपी DFO को ही दे दी जांच”

छत्तीसगढ़ के वन विभाग में एक बार फिर न्याय व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। RTI (सूचना का अधिकार) के तहत मांगी गई जानकारी के बावजूद आवेदक को जानकारी नहीं दी गई, बल्कि आरोपी अधिकारी को ही जांच सौंप दी गई। इससे स्पष्ट होता है कि ‘चोरों का राजा’ अपनी मंडली के चोरों को बचाने में जुटा हुआ है।
श्री शेख करीम द्वारा कोरबा वनमंडल से सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के तहत मांगी गई जानकारी के लिए 10325 पृष्ठों की पहचान कर लिए जाने के उपरांत शुल्क 20650/- रुपये विभाग को जमा कर दिया गया। इसके बावजूद जानकारी देने से मना कर दिया गया। विभाग बार-बार इस आधार पर जानकारी देने से कतरा रहा है कि आवेदक को केवल अभिलेख कि गणना कर बताया गया था, शुल्क जमा करने नहीं लिखा गया है उसके बावजूद आवेदक द्वारा खुद उपस्थित न होकर किसी अन्य बाहरी व्यक्ति के माध्यम से अभिलेख शुल्क जमा कराया गया हैँ, खुद उपस्थित नहीं हुवा।
अब सवाल उठते हैं:
- जब मांगी गई दस्तावेज़ों की गिनती DFO कार्यालय द्वारा हो चुकी थी, तो सीधे शुल्क क्यों नहीं मांगा गया?
- जब आवेदक द्वारा बताई गई मांगी गई जानकारी कि संख्या की पुष्टि हो गई और शुल्क भी जमा हो गया, तो जानकारी रोकने का औचित्य क्या है?
- क्या सूचना का अधिकार अधिनियम यह कहता है कि केवल आवेदक ही शुल्क जमा कर सकता है?
- जब CCF बिलासपुर, CCF (शिकायत/सतर्कता) और PCCF जैसे सीनियर IFS अधिकारी पूरे प्रकरण की जानकारी में थे, तो भी निष्पक्ष सुनवाई क्यों नहीं हुई?
- जब शिकायत के साथ पुख्ता दस्तावेज़ी साक्ष्य थे, तो आरोपी DFO को ही जांच क्यों सौंपी गई?
- विभागीय सूत्रों के अनुसार, आरोपी CCF बिलासपुर स्वयं भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिरे हैं और सेवानिवृत्ति से पहले करोड़ों की अवैध उगाही में संलिप्त हैं। कहा जाता है कि वे RSS से संबंध और पुलिस के IG-DIG से मित्रता का धौंस दिखाकर शिकायतों को दबा देते हैं।
- जांच के बाद शिकायत को गुपचुप तरीके से नस्तीबद्ध कर दिया गया और नियमानुसार शिकायतकर्ता को रिपोर्ट भी नहीं दी गई।


विश्लेषण:
यह पूरा मामला दर्शाता है कि छत्तीसगढ़ वन विभाग में पारदर्शिता और जवाबदेही केवल कागजों तक सीमित है। RTI जैसे अधिकार को माखौल बना कर विभाग ने यह सिद्ध कर दिया कि ‘चोरों की चौखट’ पर न्याय की उम्मीद करना व्यर्थ है।
निष्कर्ष:
श्री शेख करीम जैसे जागरूक नागरिकों को न केवल जानकारी देने से वंचित किया गया, बल्कि उन्हें ही संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया गया। अगर शासन इस तरह की शिकायतों पर चुप्पी साधे रखेगा, तो यह सीधे-सीधे भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देने जैसा होगा।