लखनऊ
मोहम्मद अली जिन्ना आधुनिक भारत के इतिहास की ऐसी शख्सियत रहे हैं, जिन्हें विभाजन का सबसे बड़े दोषी कहा जाता है। खोजा इस्मायली परिवार में गुजरात के काठियावड़ में जन्मे मोहम्मद अली जिन्ना की शख्सियत कई विरोधाभासों से भरी रही। अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में वह हद दर्जे के धर्मनिरपेक्ष नेता बनने के प्रयास करते रहे तो वहीं आखिरी एक दशक में इतने सांप्रदायिक बने कि पाकिस्तान ही बनवा दिया। इसी तरह पहनावे, व्यवहार और खान-पान में वह निहायत ही पश्चिमी सभ्यता का पालन करते थे, लेकिन राजनीतिक राह ऐसी पकड़ी कि कट्टरता की हद तक गए। ऐसी ही एक विडंबना उनकी मृत्यु के साथ भी जुड़ी है।
उन्होंने जिस पाकिस्तान को बनवाने के लिए लड़ाई लड़ी और एक प्राचीन देश का बंटवारा कराया, वहां उनकी मृत्यु भी बेहद दुखद रही। वह अपने आखिरी दिनों में एकदम अकेले से पड़ गए थे। राजनीतिक संघर्ष में वह किसी खेमे के नहीं रह गए थे और अकेले में मरने को मजबूर हुए। उन्हें क्षय रोग यानी टीबी की समस्या हो गई थी। वह इस बीमारी से विभाजन से पहले से पीड़ित थे, लेकिन छिपाते रहे। ऐसा इसलिए ताकि उनकी भारत विभाजन की लड़ाई कहीं कमजोर न पड़ जाए। लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद वह बमुश्किल एक साल ही चल पाए और मौत हो गई।
उनकी मृत्यु के आखिरी दिनों के बारे में वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने अपनी शोधपरक पुस्तक 'जिन्ना एक पुनर्दृष्टि' में विस्तार से लिखा है। वह लिखते हैं, 'जिन्ना का स्वास्थ्य बड़ी तेजी से गिरता जा रहा था। खांसी के साथ उनके कफ में खून की मात्रा बढ़ती जा रही थी। स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान के उद्घाटन भाषण से लौटते ही 1 जुलाई, 1948 को जूते पहने हुए ही अपने बिस्तर पर निढाल गिर पड़े थे। उनकी हालत देखकर अमेरिका में पाकिस्तान के नव नियुक्त राजदूत और उनके अनन्य प्रशंसक इस्पहानी रो पड़े थे। टीबी से पीड़ित अपने फेफड़ों के लिए स्वस्थ हवा की तलाश में वह बहन फातिमा के साथ छह जुलाई, 1948 को क्वेटा के पास एक शांतिपूर्ण हिल स्टेशन जियारत आ गए थे।'
बरनवाल लिखते हैं, 'वहां उनकी नाजुक हालत को देखकर सेना के सर्जन जनरल डॉक्टर लेफ्टिनेंट कर्नल इलाही बख्श तुरंत पहुंच गए। उन्होंने पाया कि जिन्ना के दोनों फेफड़े न केवल टीबी से बल्कि इन्फ्लुएन्जा से भी बुरी तरह ग्रस्त थे। अपनी बीमारी को जिन्ना ने अपने बंबईआ के डॉक्टर की मदद से एक अर्से से छिपा रखा था। उसे उन्होंने डॉ. इलाही बख्श से भी छिपाने की कोशिश की, लेकिन सफल ना रहे। इसी बीच लियाकत अली खान उनसे मिलने आए। लियाकत के आने की खबर पर जिन्ना ने कांपती आवाज़ में कहा था, 'फाती, जानती हो यह शख्स क्यों आया है? वह यह जानना चाहता है कि मैं कितना बीमार हूं और कब तक जिंदा रह पाऊंगा।'
'जिन्ना का संदेश तक ना जनता पर पहुंच सका'
इससे समझा जा सकता है कि मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान की राजनीति में खुद को कितना अकेला और असहाय मान रहे थे। बरनवाल लिखते हैं, 'जिन्ना की भूख लगभग समाप्त हो गई थी। आमतौर से वह अब चाय और कॉफी की चंद प्यालियों पर ही निर्भर थे। आखिरी दिनों में खास फरमाइश पर उन्हें उनका प्रिय भोजन हलुवा और पूरी खिलाया गया। 14 अगस्त, 1948 को पाकिस्तान के जन्म और स्वतंत्रता की पहली सालगिरह थी। जिन्ना ने पाकिस्तान की अवाम को जो सन्देश दिया गया था, उसकी बजाय लियाकत ने अपने भाषण के पर्चे छपवाए। यह जानकर फातिमा अवाक रह गईं।
बीमार जिन्ना को रिसीव करने कोई नहीं पहुंचा, एंबुलेंस हो गई खराब
जिन्ना की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। 11 सितंबर, 1948 को उन्हें जियारत से क्वेटा और वहां से कराची के निकट एयरफोर्स के मौरीपुर हवाई अड्डे तक एयरफोर्स के ही विमान से लाया गया। उनके साथ उनके चिकित्सक डॉ. इलाही बख्श, डॉ. सैयद, डॉ. एमए मिस्री, क्वेटा के मिलिट्री अस्पताल की अनभुवी नर्स सिस्टर डनहम और फातिमा जिन्ना थीं। हवाई अड्डे से जिन्ना को सेना की एक एम्बुलेंस में लिटाकर गवर्नर जनरल निवास के लिए रवाना किया गया। हालत यह थी कि जब उन्हें लेकर एयर फोर्स का विमान मौरीपुर उतरा तो अपने नवोदित राष्ट्र के जनक को मिजाज़पुर्सी के लिए या औपचारिक शिष्टाचारवश के लिए ही सही, न तो प्रधानमंत्री लियाकत और न ही उनके मंत्रिमंडल का कोई सदस्य उपस्थित था। चार-पांच मील की यात्रा के बाद ही एम्बुलेंस खराब हो गई। पहले तो बताया गया कि पेट्रोल खत्म हो गया है। फिर पता चला कि इंजन में खराबी थी, जिसमें वक्त लगने वाला था।