उस दिन जब वह महिला इंटरनेशनल फ्लाइट के बिजनेस क्लास में बैठी होगी, तो उसने सपने में भी सोचा नहीं होगा कि अगले कुछ घंटों में उसके साथ क्या होने वाला है। बगल की सीट पर बैठे पुरुष ने बेहिसाब शराब पी, शराब पीकर महिला के साथ बहस की और फिर उस महिला पर पेशाब कर दिया।
इतना सब होने के बाद भी उस महिला की मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। ना फ्लाइट का कैप्टन, ना केबिन क्रू, ना सहयात्री। ना किसी ने उस पुरुष के खिलाफ आवाज उठाई, ना महिला के पक्ष में।
महिलाएं आखिर कहां सुरक्षित हैं? ट्रेन में, बस में, फ्लाइट में, फ्लाइट की इकोनॉमी क्लास में, बिजनेस क्लास में, प्राइवेट जेट में। कहां?
हर जगह यूं तो पुरुष औरतों पर पेशाब नहीं करते फिरते, लेकिन वो ऐसा बहुत कुछ करते हैं, जिस कारण औरतों को घरों से निकलने और यात्रा करने से डर लगता है।

कई साल पहले वो एअर इंडिया की ही फ्लाइट थी। दिल्ली से लखनऊ को जाने वाली। बगल की सीट पर बैठा एक लहीम-शहीम सा आदमी पूरे रास्ते पलट-पलटकर घूरता रहा। उसके भीमकाय शरीर ने ना सिर्फ पूरी सीट बल्कि मेरे पूरे हैंडरेस्ट पर भी कब्जा कर रखा था।
दो घंटे की फ्लाइट में वो कम से कम पांच बार अपनी विंडो सीट से उठा होगा और बाहर निकलते हुए उसने थोड़ा संभलकर, सिकुड़कर, बचकर निकलने की कोई कोशिश नहीं की। वो ऐसे फैलकर उठता जैसे अपने घर के ड्रॉइंग रूम में बैठा हो।
उसका पूरा शरीर मेरे शरीर से रगड़ खाता। बचने के लिए मैं ही खुद को और ज्यादा सिकोड़ लेती, अपने ही भीतर सिमटती जाती।
यह ना पहली ऐसी घटना थी, ना आखिरी। ना जाने कितनी बार बस में, फ्लाइट में बैठते ही सामने वाली सीट पर बैठा आदमी अपनी कुर्सी पीछे की ओर झुकाकर आराम से पसर जाता है।
आमतौर पर पीछे बैठी महिला या तो चुपचाप सिकुड़कर बैठी रहती है या आपत्ति दर्ज करे तो उसे ऐसी तीखी, घूरती नजरों का सामना करना पड़ता है, मानो अपने स्पेस में दखलंदाजी के खिलाफ बोलकर उसने ही कोई अपराध कर दिया है।
इस देश की शायद ही कोई लड़की ऐसी हो, जिसे बस में, टैम्पो, शेयर्ड ऑटो में बगल वाली सीट पर बैठे पुरुष ने कुहनी ना मारी हो। उसे घूरकर देखा ना हो। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करने वाली कोई लड़की, कोई महिला ऐसी नहीं, जिसे इस तरह का अनुभव न हुआ हो।
घर से निकलकर बाहर की दुनिया में कदम रखते ही सबसे पहले लड़कियों का सामना पुरुषों के इस चरित्र से होता है। वो सड़क पर फब्तियां कसते हैं, कमेंट करते हैं, स्कूल-कॉलेज के सूनसान रास्ते में अपनी पैंट की जिप खोलकर खड़े हो जाते हैं, बस में भीड़ का फायदा उठाकर छूते हैं।

और इन सारे अपराधों के खिलाफ मामूली सी आवाज उठाने में लड़कियों को बरसों लग जाते हैं। जिंदगी के कितने सारे साल तो सिर्फ सिर झुकाकर सहते और चुप रहते ही बीत जाते हैं। कोई लड़की पलटकर थप्पड़ नहीं मारती, कोई घर आकर नहीं बताती कि आज रास्ते में उसके साथ क्या हुआ।
उसे डर है कि मर्दों को, इस समाज को, दुनिया को बदलने की कोशिश तो कोई नहीं करेगा। उल्टे उस लड़की के चरित्र पर ही सवाल उठेगा। उसका ही स्कूल-कॉलेज जाना, घर से निकलना बंद हो जाएगा।
अब जब बात चली ही है तो जरा ट्रेनों की भी बात कर लें, जहां लड़कियां 90 फीसदी बार अकेले नहीं, बल्कि पूरे परिवार के साथ सफर करती हैं। हिंदुस्तान की ट्रेनों में स्लीपर से लेकर फर्स्ट क्लास तक के टॉयलेट में औरतों के शरीर की जो एनाटॉमी होती है, उसकी मिसाल दुनिया के किसी रेलवे सिस्टम में नहीं मिलेगी।
एक चार-पांच साल की बच्ची से लेकर 70 साल की बूढ़ी महिला तक ट्रेन के उस टॉयलेट में जाती हैं, जिसमें कोई आदमी किसी महिला के जननांगों का चित्र बनाकर कोई घटिया सी गाली लिखकर चला गया होता है या फिर अपना मोबाइल नंबर डालकर।
वो भले सीधे किसी महिला को अपमानित ना कर रहा हो, लेकिन इन वाकयों से गुजरने वाली हर लड़की, हर औरत खुद को अपमानित ही महसूस करती है।
और ये अनुभव सिर्फ बस, टैंपो और ट्रेन तक ही सीमित नहीं हैं। क्या हवाई जहाज और क्या हवाई जहाज का फर्स्ट क्लास बिजनेस सेक्शन। कोई भी स्त्रियों के खिलाफ छिपी हुई हिंसा से अछूता नहीं है।
संसार में कोई ऐसी जगह नहीं, जहां औरतों के लिए सुरक्षा की सौ फीसदी गारंटी हो। बिजनेस क्लास में भी कोई पेशाब करके चला जाएगा और आप बिल्कुल अकेली निहत्थी ये सोचती रहेंगी कि आखिर मेरा अपराध क्या था।
औरतों का सिर्फ एक ही अपराध है कि वो औरत हैं।

आज भी इस देश में अकेले यात्रा करने वाली स्त्रियों की संख्या कितनी है। भारत उन देशों में से है, जिसे दुनिया के कई देशों ने सोलो ट्रैवलर महिलाओं के लिए रेड फ्लैग कर रखा है। निर्भया केस के बाद तो बाकायदा चेतावनी जारी की गई थी कि महिलाएं अकेले घूमने के लिए हिंदुस्तान न जाएं।
बाहर की महिलाओं का क्या, इस देश की महिलाएं भी अपने ही देश के भीतर कहां सुरक्षित महसूस करती हैं। थोड़ा अंधेरा हो जाए, थोड़ा रास्ता सूनसान हो तो किसी अनहोनी की आशंका से दिल बैठने लगता है। सफर में, रास्ते में किसी मर्द का होना सुरक्षा का एहसास नहीं कराता, बल्कि और ज्यादा डरा देता है।
यह वो देश है, जहां हर चौथे वाक्य में औरत की पूजा करने की बात की जाती है। हर आठवें दिन कोई न कोई नेता अपने भाषण में नारी की मर्यादा और सम्मान का ज्ञान देने लगता है। और हर चौथे महीने उसी नारी को अपमानित करने वाला कोई बयान, कोई वाकया सामने आ जाता है।
इसके बावजूद आपको लगता है कि औरतों को गुस्सा क्यों आता है। आपका सवाल ही गलत है। आपको ये नहीं पूछना चाहिए कि औरतों को इतना गुस्सा क्यों आता है। आपको तो ये भी नहीं पूछना चाहिए कि इतनी तकलीफ, इतने अपमान, इतनी पीड़ा के बाद भी इतना कम गुस्सा क्यों आता है।
हर रोज इतना अपमान अगर आपको सहना पड़ता तो आप क्या करते ?
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