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✍️ 4thpiller.com का विशेष रिपोर्ट |
रायगढ़, घरघोड़ा
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र रायगढ़ में विकास के नाम पर विस्थापन और शोषण की एक और दुखद कहानी सामने आई है। घरघोड़ा क्षेत्र के डोकरबुड़ा, राबो, गतगांव और हर्राडीह ग्रामों में ब्लैक डायमंड कंपनी द्वारा बारूद प्लांट के निर्माण की कोशिशें न सिर्फ स्थानीय आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी हैं, बल्कि सरकार की कथित करबद्धता पर भी सवाल खड़े करती हैं — जो बार-बार कहती रही है कि वह आदिवासियों के अधिकारों और संस्कृति की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।

क्या है मामला?
इन गांवों की ज़मीन — जिसमें जंगल, चरनोई और आदिवासी खेती की भूमि शामिल है — का विरोध के बावजूद जबरन डायवर्सन किया गया। कंपनी के भूमि पूजन कार्यक्रम के दौरान जब ग्रामीणों ने कड़ा विरोध जताया, तो कंपनी को बैरंग लौटना पड़ा। यह घटना यह दर्शाती है कि ज़मीन के असली मालिक — आदिवासी — अपने हक के लिए एकजुट हैं, मगर प्रशासन और जनप्रतिनिधि उनकी सुनवाई में नाकाम साबित हो रहे हैं।

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मामला क्यों है गलत? – संवैधानिक, नैतिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण से
1. संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन:
अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों की भूमि की सुरक्षा हेतु भारत का संविधान विशेष प्रावधान करता है (जैसे कि 5वीं अनुसूची, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम – PESA)। किसी भी प्रकार की भूमि अंतरण में ग्राम सभा की स्वीकृति अनिवार्य है। क्या यहां ग्राम सभा की अनुमति ली गई?
2. PESA और FRA कानून की अवहेलना:
वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत आदिवासियों को व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार प्राप्त हैं। ग्राम सभा ही सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था मानी गई है। लेकिन रायगढ़ में यह सिद्धांत पूरी तरह से ताक पर रख दिया गया है।
3. आर्थिक व सामाजिक विस्थापन का खतरा:
एक बार बारूद प्लांट बन गया, तो उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले लोग स्वास्थ्य, जल स्रोत, खेती व पर्यावरणीय असंतुलन से प्रभावित होंगे। यह विकास नहीं, अस्थायी लाभ के लिए स्थायी विनाश का रास्ता है।
4. आदिवासी संस्कृति और पहचान पर आघात:
भूमि सिर्फ संपत्ति नहीं है, यह आदिवासी जीवन का आधार, संस्कृति और अस्मिता का प्रतीक है। जबरन ज़मीन छीनना एक समुदाय की आत्मा पर हमला है।
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吝 सरकार की करबद्धता बनाम ज़मीनी हकीकत
राज्य और केंद्र सरकार दोनों ही मंचों पर यह दावा करती हैं कि वे आदिवासी समाज के उत्थान और उनकी पहचान की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। बजट में आदिवासी कल्याण के लिए योजनाएं लायी जाती हैं, वनाधिकार पट्टों का वितरण किया जाता है, शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए घोषणाएं की जाती हैं। लेकिन जब बात ज़मीनी हक की होती है, तो उसी सरकार की चुप्पी और प्रशासन की बर्बरता सामने आती है।
तो क्या यह माना जाए कि आदिवासियों के अधिकार सिर्फ नीतिगत दस्तावेजों तक सीमित हैं?
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जनप्रतिनिधियों की चुप्पी – मौन समर्थन या मिलीभगत ?
रायगढ़ के सांसद राधेश्याम राठिया, जो स्वयं एक आदिवासी नेता हैं, उनके ही लोकसभा क्षेत्र में जब आदिवासियों की ज़मीन पर अतिक्रमण होता है, तो उनका मौन कई गंभीर सवाल खड़ा करता है:
क्या सांसद को अपने क्षेत्र में हो रही घटनाओं की जानकारी नहीं ?
या फिर वे अपने ही समाज की आवाज़ को अनसुना कर सत्ता या कॉर्पोरेट दबाव में हैं?
यदि जनप्रतिनिधि जनता की आवाज़ नहीं बन सकते, तो वे किसके प्रतिनिधि हैं?
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⚖️ तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो…
पहलू सरकारी दावा ज़मीनी सच्चाई
आदिवासी अधिकार संरक्षण का वादा जबरन भूमि अधिग्रहण
ग्राम सभा की भूमिका सर्वोच्च संस्था अनदेखी व दरकिनार
पर्यावरणीय दृष्टिकोण संतुलित विकास बारूद प्लांट, जंगल कटाई
स्वास्थ्य सुरक्षा योजनाएं बारूद प्लांट से संभावित खतरा
सांसद/जनप्रतिनिधि की भूमिका प्रतिनिधित्व चुप्पी, निष्क्रियता
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️ ग्रामीणों की आवाज़: यह सिर्फ विरोध नहीं, हक़ की लड़ाई है :-
डोकरबुड़ा की एक महिला ने कहा,
> “हम अपनी ज़मीन नहीं देंगे, यही हमारी मां है। कंपनी हमें पैसा देकर क्या हमारी आत्मा खरीद लेगी?”
हर्राडीह के एक युवा ने कहा,
> “यह लड़ाई सिर्फ आज की नहीं, आने वाली पीढ़ियों के लिए है। अगर आज हम चुप रहे, तो कल हमारा अस्तित्व ही मिट जाएगा।”
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निष्कर्ष: यह समय है, जब सरकार और समाज को जागना होगा
आदिवासियों के अधिकार कृपा नहीं, संविधानिक हक़ हैं।
विकास के नाम पर शोषण और विस्थापन को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
सरकार को चाहिए कि वह डायवर्सन आदेश वापस ले, और जनसंवाद की प्रक्रिया शुरू करे।
सांसद व अन्य जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि वे अपने मूल्य और समाज के प्रति जवाबदेही को याद रखें।
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यदि एक जुट होकर पुरे आदिवासियों की अब भी आवाज़ नहीं उठी, तो भविष्य में जंगल, ज़मीन और ज़िंदगी — तीनों खो जाएंगे।