छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रमेश कुमार सिन्हा एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि केवल रिश्वत की राशि बरामद होने के आधार पर किसी आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक यह साबित न हो कि उसने राशि स्वेच्छा से रिश्वत के तौर पर ली थी। अदालत ने इस आधार पर आदिम जाति कल्याण विभाग में पदस्थ रहे एक कर्मचारी को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है।
यह मामला गरियाबंद जिले का है। आरोप था कि मंडल संयोजक लवन सिंह चुरेंद्र ने मदनपुर के सरकारी प्राइमरी स्कूल में पदस्थ शिक्षक बैजनाथ नेताम से हॉस्टल छात्रों की छात्रवृत्ति स्वीकृत करने के बदले ₹10,000 की रिश्वत मांगी थी। शिकायतकर्ता ने ₹2,000 तत्काल देने और ₹8,000 बाद में देने की बात कही थी। 22 जनवरी 2013 को नेताम ने एसीबी से शिकायत की, जिसके बाद 1 फरवरी को ट्रैप टीम ने आरोपी के पास से ₹8,000 बरामद किए। जब्त की गई राशि पर रंग लगाने की पुष्टि भी हुई थी, और पंचनामा के साथ रिकॉर्डेड बातचीत भी पेश की गई थी।
विशेष न्यायालय ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और 13 के तहत आरोपी को दो-दो साल की सजा सुनाई थी, जो साथ-साथ चलनी थी। इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई।
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान यह तर्क दिया गया कि शिकायतकर्ता स्वयं छात्रवृत्ति गबन के मामले में संदेह के घेरे में है। आरोपी ने पहले उसके खिलाफ अनुपस्थित छात्रों के नाम पर ₹50,700 की गबन की रिपोर्ट दी थी, जिस पर सहायक आयुक्त ने नोटिस भी जारी किया था।
हाईकोर्ट ने यह भी माना कि आरोपी के पास छात्रवृत्ति स्वीकृत करने का कोई अधिकार नहीं था। रिकॉर्डिंग में रिश्वत मांगने का स्पष्ट प्रमाण नहीं था और न ही शिकायतकर्ता के आरोपों की पुष्टि ठोस साक्ष्यों से हो सकी। अदालत ने माना कि मामला पूर्व वैमनस्य और फर्जी फंसाने का हो सकता है। इसी आधार पर कोर्ट ने आरोपी को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।