भारतीय वन सेवा (IFS) देश की प्रतिष्ठित सेवाओं में से एक मानी जाती है। इसके अधिकारियों की जिम्मेदारी केवल जंगलों और वन्यजीवों की रक्षा तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह सेवा पारिस्थितिकी संतुलन, पर्यावरण संरक्षण, जैव विविधता और वनवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परंतु छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हाल के वर्षों में वन विभाग की स्थिति गंभीर होती जा रही है। सेवा की मर्यादा और गरिमा को दरकिनार कर अधिकारी अपने मूल कर्तव्यों से विमुख होते दिख रहे हैं।
कर्तव्य से विमुख होते अधिकारी



भारतीय वन सेवा की छवि एक समय अत्यंत सम्मानजनक थी, लेकिन आज यह सेवा गलत कारणों से चर्चा में रहने लगी है। भ्रष्टाचार, पोस्टिंग के लिए बोली लगाना, नेताओं की चापलूसी और अवैध वसूली जैसी घटनाएं इस सेवा के मूल उद्देश्य को नष्ट कर रही हैं। मलाईदार पदों की लिप्सा में अधिकारी किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि एक अधिकारी की अनियमितता को छुपाने के लिए दूसरा अधिकारी पूरी व्यवस्था को और अधिक दूषित कर देता है।
वन अधिकारियों को जिन जंगलों की रक्षा करनी चाहिए, वे आज उन्हें सिर्फ “कमाई का जरिया” मानने लगे हैं। जंगल कट रहे हैं, अवैध उत्खनन और वन्यजीव तस्करी चरम पर है, लेकिन विभाग के कई उच्चाधिकारी इन अपराधों पर आँख मूंदे हुए हैं, क्योंकि उनके निजी स्वार्थ उनसे बड़े हो चुके हैं।


पुराने घोटालों से कोई सीख नहीं
यह पहला अवसर नहीं है जब छत्तीसगढ़ वन विभाग में इस तरह के घोटाले सामने आए हैं। 2001-02 के दौरान सूरजपुर क्षेत्र में तेंदूपत्ता बोनस और बूटा कटाई की राशि में भारी भ्रष्टाचार हुआ था। तत्कालीन DFO अग्रवाल ने अधीनस्थ अधिकारियों को 50% भुगतान कर 100% भुगतान पत्रक में हस्ताक्षर कराने के निर्देश दिए थे। निचले स्तर पर अधिकारियों ने इसे अवसर समझा और केवल 1-2 दिन की राशि देकर पूरे भुगतान की फर्जी रिपोर्ट तैयार कर ली। इस मामले का खुलासा होने पर संबंधित अधिकारी निलंबित हुए, लेकिन इससे कोई सीख नहीं ली गई।

आज भी वही कहानी दोहराई जा रही है। सुकमा जिले में वर्ष 2021-22 के दौरान तेंदूपत्ता बोनस वितरण में लगभग 6 करोड़ 54 लाख रुपये का घोटाला सामने आया है। CCF, जगदलपुर की प्रारंभिक जांच में यह स्पष्ट हो चुका है कि राशि का वास्तविक लाभार्थियों तक पहुँचना केवल कागजों तक सीमित रहा।
नेताओं की चाकरी और भ्रष्टाचार का नया मॉडल
आज के भारतीय वन सेवा अधिकारी 20T20T मैच की तरह भ्रष्टाचार को खेल रहे हैं। पोस्टिंग के लिए नीलामी लगती है, और जो सबसे अधिक बोली लगाता है, उसे सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला वन क्षेत्र मिलता है। इन अधिकारियों को जंगलों की रक्षा से अधिक अपने “निवेश की वसूली” की चिंता रहती है। यही कारण है कि जैसे ही कोई अधिकारी मलाईदार पोस्टिंग पर पहुँचता है, वह पहले से भी बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार करने लगता है।
वन अधिकारियों का यह नैतिक पतन न केवल जंगलों और पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है, बल्कि इस सेवा की मूल प्रतिष्ठा को भी खत्म कर रहा है। आज के IFS अधिकारियों को समझना होगा कि पद और प्रतिष्ठा केवल कुछ वर्षों की बात नहीं होती, यह एक विरासत होती है, जिसे आने वाली पीढ़ियों के लिए संजो कर रखना चाहिए।
छत्तीसगढ़ वन विभाग : नैतिकता और ईमानदारी का प्रश्न
भारतीय वन सेवा (IFS) का उद्देश्य केवल जंगलों की रक्षा करना नहीं है, बल्कि यह समाज और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखने की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी भी है। यह सेवा उन्हीं अधिकारियों के कारण गौरवशाली बनी रहती है, जो अपने पदीय दायित्वों का निष्ठा से निर्वहन करते हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति चिंताजनक है—छत्तीसगढ़ में वन अधिकारियों की साख गिरती जा रही है, और यह सेवा लगातार गलत कारणों से सुर्खियों में है।



पद और प्रतिष्ठा का सवाल
आज की तारीख में अगर देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में मलाईदार पदों पर दक्षिण भारतीय अधिकारियों (IFS South Lobby) का वर्चस्व साफ देखा जा सकता है। ये अधिकारी महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं, लेकिन क्या वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन निष्पक्षता और ईमानदारी से कर रहे हैं? यह एक बड़ा सवाल बन चुका है। पद की ताकत का उपयोग यदि सिर्फ व्यक्तिगत लाभ और भ्रष्टाचार के लिए किया जाए, तो आने वाली पीढ़ियां इन्हें किस रूप में याद रखेंगी? क्या ये अधिकारी खुद से यह सवाल पूछने को तैयार हैं?
किसी भी पद का असली सम्मान उसके कार्यों से तय होता है, न कि उसके प्रभाव और आर्थिक लेन-देन से। यदि कोई अधिकारी अपने कार्यकाल में केवल अपनी संपत्ति बढ़ाने, नेताओं की चापलूसी करने और पदों की खरीद-फरोख्त में लगा रहे, तो इतिहास उसे एक उदाहरण के रूप में नहीं, बल्कि एक चेतावनी के रूप में याद रखेगा।
प्राकृतिक न्याय और जवाबदेही
IFS अधिकारियों को यह समझना होगा कि पैसे से बड़ा भगवान के बनाए प्राकृतिक और सामाजिक ताने-बाने की रक्षा करना होता है। पदस्थापनाएं और मलाईदार पोस्टिंग भले ही अभी उनकी ताकत का प्रतीक लगें, लेकिन अंततः यह सेवा उनकी जिम्मेदारी है, जो जनता और पर्यावरण के प्रति है। एक न एक दिन यह जीवन छोड़ना ही होगा, फिर क्यों न ऐसे काम किए जाएं कि आने वाली पीढ़ी इन्हें सम्मान से याद करे, न कि घृणा से?
छत्तीसगढ़ में गिरती साख का दोष किसी एक व्यक्ति या समूह पर डालना सही नहीं होगा, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि वर्तमान में मलाईदार पदों पर बैठे अधिकारियों की जवाबदेही सबसे अधिक बनती है। उन्हें यह सोचने की जरूरत है कि वे IFS की गरिमा को बचा रहे हैं या उसे और नीचे गिरा रहे हैं?
समय की मांग : नैतिक जागरूकता
अब समय आ गया है कि छत्तीसगढ़ के वन अधिकारियों को आत्ममंथन करना चाहिए। क्या वे वास्तव में वन संरक्षण और पर्यावरण के प्रति समर्पित हैं, या सिर्फ पदों की दौड़ में लगे हुए हैं? यह प्रश्न उनसे जवाब मांग रहा है। आने वाली पीढ़ी और समाज उन्हें उनके कर्मों से याद रखेगा—अब यह उनके ऊपर है कि वे खुद को एक ईमानदार अधिकारी के रूप में अमर करना चाहते हैं या भ्रष्टाचार के उदाहरण के रूप में।
अंततः, सरकार और प्रशासन को भी इस मुद्दे पर गंभीरता से ध्यान देना होगा। पारदर्शिता, जवाबदेही और नैतिक मूल्यों को पुनः स्थापित करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। IFS की गरिमा और छत्तीसगढ़ के जंगलों को बचाने की ज़िम्मेदारी उन अधिकारियों पर है, जो आज सत्ता में हैं। वे चाहें तो इसे संवार सकते हैं, वरना इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
निष्कर्ष
छत्तीसगढ़ वन विभाग की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो आने वाले वर्षों में जंगलों की रक्षा के नाम पर केवल कागजी योजनाएँ ही बचेंगी। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वे सख्त कदम उठाएं, पोस्टिंग और प्रमोशन में पारदर्शिता लाएँ, और भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करें। वरना वह दिन दूर नहीं जब भारतीय वन सेवा का नाम केवल एक प्रशासनिक ढांचे में सिमटकर रह जाएगा, और जंगल सिर्फ किताबों में ही बचेंगे।