✍️ सत्ता, सिस्टम और सवाल — जब जवाबदेही ऊपर से गायब हो जाती है, तब भ्रस्ट अधिकारी बैठतें हैं सिहासन में, और तब होता है भ्रस्टाचार का बोलबाला …
अनुभवी पत्रकार की कलम से
✍️ अब्दुल शेख करीम ✍️
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🌲 छत्तीसगढ़ का वन तंत्र और बदलती सोच
आज छत्तीसगढ़ में एक अजीब सा माहौल देखने को मिल रहा है।
वन विभाग, जो कभी हरियाली और पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक था, अब आरोपों, बयानबाज़ी और मीडिया ट्रायल का अड्डा बनता जा रहा है।
बीते कुछ महीनों से प्रदेश के वर्तमान वनबल प्रमुख एवं प्रधान मुख्य वन संरक्षक (PCCF) श्री व्ही. श्रीनिवास राव पर लगातार आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं।
लेकिन जब इन आरोपों की तह तक जाया जाए, तो कई बातें “पुराने टेप” की तरह दोहराई जा रही लगती हैं — न नया तथ्य, न ठोस प्रमाण, बस वही राजनीति की परछाई में उलझी आवाज़ें।
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⚖️ छोटे को सज़ा, बड़े पर मौन — यही है सिस्टम की परंपरा
यह हाल सिर्फ वन विभाग का नहीं है।
हमारे पूरे प्रशासनिक ढांचे का यही चेहरा बन चुका है —
गलती किसी की हो, सज़ा हमेशा छोटे को मिलती है।
मान लीजिए, किसी थाने में एक आरोपी की संदिग्ध मौत हो जाती है।
सुबह खबर फैलती है, मीडिया शोर मचाता है, और सिस्टम सक्रिय हो जाता है।
लेकिन नतीजा?
थाने के दो सिपाही सस्पेंड, मामला ठंडा।
कोई यह नहीं पूछता कि SP या IG DGP ने क्या भूमिका निभाई? या इनमें से किसी को सस्पेंड क्यों नहीं किया गया।
सिस्टम जानबूझकर छोटे लोगों की बलि देकर बड़े अधिकारियों पर पर्दा डाल देता है।
यही हाल आज वन विभाग में भी दिखाई देता है।
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🌿 श्रीनिवास राव पर आरोप… पर क्या ये सही पते पर हैं?
आज बहुत से पत्रकार और राजनीतिक समर्थक श्रीनिवास राव पर टूट पड़ते हैं।
लेकिन क्या वे यह देखने की कोशिश करते हैं कि जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं, वे वास्तव में राव से संबंधित हैं भी या नहीं?
कई बार तो ये आरोप उस शासनकाल, उस मंत्री या उस फैसले से जुड़े होते हैं जिनमें राव की भूमिका सीमित या नाममात्र की रही।
यह ठीक वैसा ही है जैसे थाने में “सिपाही” को सस्पेंड करके IG को बचा लिया जाता है।
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🕰 सत्ता बदलती है, पर समीकरण नहीं
भूपेश बघेल और मोहम्मद अकबर की सरकार के दौरान श्रीनिवास राव महज कुछ महीनों के लिए PCCF रहे।
फिर सरकार बदली, नई सत्ता आई।
कहा गया कि “अब राव की कुर्सी जाने वाली है”,
“गृहमंत्री विजय शर्मा उनसे खफा हैं”,
“वनमंत्री केदार कश्यप उनसे खफा हैं”,
RSS विंग खफा है, केंद्र से बुलावा आया है,
“कभी भी हटा दिए जाएंगे।”
पर दो साल बीत गए — राव वहीं हैं।
यानी, सत्ता बदली लेकिन सिस्टम नहीं बदला।
कभी कांग्रेस सरकार में अकबर के करीबी कहे गए,
अब भाजपा शासन में भी शीर्ष कुर्सी पर कायम हैं।
यही तो नौकरशाही की असली ताकत है —
राजनीति की भाषा को राजनीति से बेहतर समझना।
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💬 “मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता” — एक बयान, कई अर्थ
जानकारों के अनुसार, स्वयं श्रीनिवास राव खुलेआम कहते हैं —
> “तुम जितना चाहो लिखो, मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
मैं कांग्रेस में भी सुरक्षित था, भाजपा में भी सुरक्षित रहूंगा।”
वे अपनी यह दलील 2018 के अनुभव से जोड़ते हैं, जब CF दुर्ग से CCF जगदलपुर की पदोन्नति उन्हें भाजपा सरकार में मिली थी।
फिर कांग्रेस शासन में भी मलाईदार पोस्टिंग संभाली और अब भाजपा शासन में PCCF के रूप में कार्यरत हैं।
साफ है, राव केवल वन अधिकारी नहीं — बल्कि राजनीतिक परिस्थिति के कुशल खिलाड़ी हैं।
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📣 पत्रकार और सत्ता — एक पुराना खेल
अब बात पत्रकारों की।
जो राव के खिलाफ लिखते हैं,
वो भी जानते हैं कि “कुछ होने वाला नहीं”।
और सरकार भी जानती है कि ये पत्रकार थोड़ा लिखेंगे, थोड़ी आवाज़ उठाएँगे, और फिर शांत हो जाएँगे।
दरअसल, यह एक “सिस्टमेटिक ट्रेड ऑफ़” बन चुका है —
पत्रकार थोड़ी “खबर” बनाते हैं,
अधिकारी थोड़ी “सुविधा” दे देते हैं,
और जनता सोचती रह जाती है कि “कब सुधार होगा?”
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🧩 सवाल सिर्फ राव का नहीं, सिस्टम का है
इस पूरे परिदृश्य में सवाल यह नहीं कि श्रीनिवास राव सही हैं या गलत,
सवाल यह है कि क्या हम सिस्टम में जवाबदेही की मांग सही जगह से कर रहे हैं?
क्यों हमेशा छोटे अफसरों, कर्मचारियों या अस्थायी नियुक्तियों को ही बलि का बकरा बनाया जाता है?
क्या हम कभी मंत्री, सचिव या नीति निर्माता से जवाब मांगते हैं?
🟫 : आरोप लगाने वालों की नीयत पर सवाल
> श्री राव पर आरोप लगाने वाले कुछ लोग या तो ईमानदार पत्रकार नहीं हैं या फिर राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं। कई लोग व्यक्तिगत द्वेष या किसी निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए इस तरह की खबरें बना रहे हैं।
बिना ठोस सबूत किसी लोकसेवक पर आरोप लगाना पत्रकारिता की मर्यादा के विपरीत है। नौकरी में होने का मतलब यह नहीं कि कोई अधिकारी हर झूठे आरोप को सहता रहे।
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🟫 : पत्रकारिता बनाम राजनीति
> आज की पत्रकारिता में कई लोग समाचार के साथ-साथ राजनीति भी कर रहे हैं। वे किसी एक राजनीतिक दल के सदस्य की तरह काम कर रहे हैं।
यह प्रवृत्ति पत्रकारिता की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाती है — क्योंकि पत्रकार का दायित्व सत्ता या व्यक्ति से परे, सत्य के पक्ष में खड़ा होना है।
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🟫 : ‘मदरसे-मस्जिद’ के दावे पर सवाल
> कुछ लोगों का कहना है कि कांग्रेस कार्यकाल में वन प्रमुख श्रीनिवास राव ने मोहम्मद अकबर के वनमंत्री रहते मदरसे और मस्जिद सरकारी पैसों से बनवाए।
लेकिन प्रश्न यह उठता है — क्या कोई अधिकारी सरकारी धन से धार्मिक स्थल बना सकता है? यह दावा न केवल तर्कहीन बल्कि साक्ष्यविहीन भी प्रतीत होता है।
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🟫 : वर्तमान सरकार में CCF पर गंभीर आरोप
> वर्तमान वनमंत्री केदार कश्यप के कार्यकाल में बिलासपुर के तत्कालीन CCF द्वारा रिटायरमेंट से पहले करीब 15 करोड़ की वसूली अभियान चलाने के आरोप हैं।
बताया जाता है कि वे अधीनस्थ अधिकारियों से मंत्री के नाम पर खुलेआम पैसा माँगते थे और खुद को RSS व राजनाथ सिंह से जुड़ा बताते थे।
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🟫 : अधीनस्थों को धमकाकर वसूली का खेल
> रिटायरमेंट के आख़िरी 13 महीनों में उक्त CCF ने अधीनस्थ वनरक्षक, वनपाल, डिप्टी रेंजर, रेंजर, SDO और DFO को नोटिस देकर, CR खराब करने या जाँच कराने की धमकी देकर करोड़ों की वसूली की।
इतना ही नहीं, नए IFS अधिकारियों को भी इस वसूली चक्र में नहीं छोड़ा गया।
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🟫 : “अगर मैं गलत हूँ, तो सज़ा मंज़ूर”
> लेखक का स्पष्ट कहना है कि —
“यदि मेरे द्वारा लगाए गए आरोप गलत सिद्ध हों, तो शासन-प्रशासन जो भी सज़ा देगा, मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा। बस, जांच निष्पक्ष और अभिलेख आधारित होनी चाहिए।”
📌 निष्कर्ष — जवाबदेही ऊपर से शुरू होनी चाहिए
जब तक जवाबदेही नीचे से नहीं, ऊपर से शुरू नहीं होगी,
तब तक वन विभाग हो या पुलिस विभाग — हालात नहीं बदलेंगे।
आज के दौर में सच बोलना “जोखिम” है,
पर यदि सच को छोड़ दिया गया, तो कल बोलने का “अवसर” ही खत्म हो जाएगा।
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✍️ अगला अंक — शासन प्रशासन की खामी…
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