“1937 से आज तक… ईद-ए-मिलादुन्नबी: हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब और अंग्रेज़ी दौर की गवाही”

ईद-ए-मिलादुन्नबी: हिंदुस्तान की तहज़ीब और इतिहास की रोशन मिसाल

मिलादुन्नबी यानी पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मोहम्मद ﷺ का जन्मदिन, हिंदुस्तान में सैकड़ों सालों से पूरे जज़्बे और एहतराम के साथ मनाया जाता रहा है। चाहे मुग़ल दौर हो, अंग्रेज़ी हुकूमत का ज़माना हो या आज़ाद भारत—यह जश्न कभी थमा नहीं।

1937 का वह ऐतिहासिक दस्तावेज़, जो मवनल्ला (श्रीलंका) के एक हॉल में आयोजित मिलादुन्नबी का सबूत है, इस परंपरा की गहराई और मज़बूती की गवाही देता है। उस दौर में भी अंग्रेज़ों की मौजूदगी के बावजूद मुसलमान बड़े पैमाने पर पैग़ंबर ﷺ की याद में जलसे और जुलूस करते रहे और अंग्रेज़ अफसर अक्सर इसका एहतराम करते थे।

लखनऊ: तहज़ीब और मिलाद का संगम

लखनऊ में ईद मिलादुन्नबी की परंपरा बेहद पुरानी है। नवाबी दौर से ही यहां बड़े-बड़े जलूस निकलते रहे। ताजियादारों की तरह मिलादुन्नबी के जलसों में भी हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा देखने को मिलता। यहां तक कि कई जगहों पर हिन्दू समाज भी फूल बरसाकर इन जलसों का इस्तकबाल करता था। अंग्रेज़ अफसर भी इन मौकों पर कड़ी सुरक्षा देते और स्थानीय समाज की भावनाओं का सम्मान करते।

हैदराबाद: निज़ामों की सरपरस्ती

हैदराबाद में निज़ामों ने मिलादुन्नबी को एक “राजकीय जश्न” का दर्जा दिया था। यहां इस दिन सरकारी छुट्टी होती थी और निज़ाम खुद शहर की मस्जिदों और जलसों में शरीक होते। मिलादुन्नबी का जुलूस चारमीनार से होकर गुजरता और पूरे शहर को रोशनियों से सजाया जाता। यह परंपरा आज भी उसी शान से जारी है।

कोलकाता: मिलाद और ब्रिटिश अफसर

कोलकाता, जो अंग्रेज़ी राज की राजधानी भी रहा, वहां मिलादुन्नबी का खास एहतमाम किया जाता था। 19वीं सदी के आखिर में यहां का जुलूस इतना मशहूर था कि ब्रिटिश गवर्नर ने खुद इसे देखकर कहा था—
“यह दिन मुस्लिम समाज के लिए उसी तरह है जैसे क्रिसमस ईसाई समाज के लिए।”
ब्रिटिश हुक्मरान इस मौके पर सलामी भी बजाते और मजलिसों को इज़्ज़त से देखते।

भोपाल: बेग़मात का एहतराम

भोपाल, जहां लंबे अरसे तक मुस्लिम बेग़मों की हुकूमत रही, वहां भी ईद-ए-मिलादुन्नबी का खास जश्न मनाया जाता था। बेग़म सुल्तान शाहजहां और बेग़म सुल्तान जहां ने इस मौके पर गरीबों में खाना तक्सीम करने और शहर की सड़कों पर जुलूस निकालने की परंपरा डाली। अंग्रेज़ों के दौर में भी भोपाल में इस जश्न को रोकने की कभी कोशिश नहीं हुई, बल्कि अंग्रेज़ रेज़ीडेंट्स ने इस दिन को “विशेष पर्व” मानकर स्थानीय समाज के साथ मेलजोल दिखाया।

गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल

हिंदुस्तान में ईद-ए-मिलादुन्नबी सिर्फ मुसलमानों का त्योहार नहीं बल्कि साझा तहज़ीब का पैग़ाम है। बनारस, लखनऊ और हैदराबाद में हिन्दू समाज इस मौके पर अपने मुस्लिम भाइयों का इस्तकबाल करता, जुलूसों पर फूल बरसाता और लंगरों में शामिल होता।

आज और कल

1937 के इस दस्तावेज़ से लेकर आज़ाद भारत तक, मिलादुन्नबी का जश्न लगातार मनाया जा रहा है। यह दिन इंसानियत, मोहब्बत और भाईचारे का पैग़ाम देता है। अंग्रेज़ों ने भी इस दिन का एहतराम किया और आज का हिंदुस्तान भी इसे उसी मोहब्बत और इज़्ज़त से मानता है।


“मुग़ल सल्तनत से निज़ामों की सरपरस्ती और अंग्रेज़ों के एहतराम तक—ईद-ए-मिलादुन्नबी हिंदुस्तान में इंसानियत और भाईचारे का पैग़ाम बनकर ता-कयामत मनाई जाती रहेगी।”

📌 निष्कर्ष
ईद-ए-मिलादुन्नबी हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब का उज्जवल चेहरा है। चाहे नवाब हों, निज़ाम हों, अंग्रेज़ हुक्मरान हों या आज़ाद भारत—इस जश्न को हमेशा इज़्ज़त मिली और यह ता-कयामत मनाया जाता रहेगा।

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