BHOPAL. शतरंज की बिसात पर सिर्फ 2 रंग की मोहरें होती हैं। काली और सफेद, लेकिन चुनावी बिसात में रंगों की कोई बाध्यता नहीं होती। बीजेपी और कांग्रेस अपने मोहरे सेट करने में जुट गई हैं। इस बार प्रदेश की सियासी बिसात पर। कुछ नए रंग के मोहरे भी चाल चलने के लिए बेताब हैं।
इन मोहरों की मौजूदगी से कांग्रेस और बीजेपी दोनों में कंफ्यूजन है कि अपने मोहरे उतनी ही जगह पर। सेट करें तो करें कैसे। काले सफेद से इतर, यही रंग-बिरंगी मोहरे हैं। जो बड़े दल के रंग में भंग कर रहे हैं, जिनके होना सिर्फ होना भर नहीं है, ये जहां-जहां होंगे, वहां किसी और के खाने पर कब्जा जरूर करेंगे।
ये समझना कहां मुश्किल है कि जिसके पास सबसे कम खाने होंगे, चुनावी खेल में मात उसे ही मिलेगी, पर मजेदार बात ये है कि जो छोटे दल चुनाव में बड़ा गेम करते नजर आ रहे हैं। उनकी खुद की चाल ही अभी तय नहीं हो पा रही है।
किंग मेकर बनने के लिए बड़े-बड़े खेल
ये मोहरे कुछ और नहीं, वो सियासी दल हैं जो इस बार मध्यप्रदेश की चुनावी राजनीति में दमखम दिखाने उतरे हैं। इससे पहले तक मध्यप्रदेश की सियासत कांग्रेस और बीजेपी के इर्दगिर्द ही घूमती रही।
इक्का-दुक्की सीट ऐसी रहीं जहां कांग्रेस-बीजेपी के अलावा तीसरा और चौथा दल मैदान में रहा। वो भी आमतौर पर सपा या बसपा ही रहे, लेकिन इस बार चुनावी मैदान अलग-अलग सियासी रंग से लबरेज है। यहां बसपा का नीला रंग है तो सपा का लाल रंग भी मौजूद है। इसके अलावा ढेरों नए रंग हैं।
अलग-अलग छोटे पॉलिटिकल फ्रंट्स हैं। जो खुद इस बात से वाकिफ हैं कि वो चुनाव लड़ सकते हैं। जीत भी सकते हैं, लेकिन सरकार नहीं बन सकते। पर इसमें भी कोई दो राय नहीं कि वो किंग भले न बने, लेकिन उन्हें किंग मेकर बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। हालांकि किंग मेकर बनने की खातिर ही दलों के बीच बड़े-बड़े खेल हो रहे हैं।
मध्यप्रदेश में क्या करेंगे छोटे दल?
इन छोटे दलों की निगेहबानी में क्या बीजेपी पांचवी बार सत्ता में वापसी कर सकेगी। क्या कांग्रेस इन दलों की वजह से फिर हारकर दुबक जाएगी या ये छोटे दल विचारधारा का हवाला देकर अपनी सीटों के साथ कांग्रेस का हाथ पकड़ लेंगे। 5 महीने बाद होने वाले चुनाव में छोटे दल क्या गुल खिलाएंगे।
इसको लेकर कई सवाल हैं, सबका अपना एक तरीका है और मतदाताओं को रिझाने का एक पैटर्न है, जिसे देखकर ये अंदाजा लगाया जा रहा है कि इन दलों की आमद यानी अगले चुनाव में कांग्रेस की शामत है, लेकिन ये सब तब होगा जब छोटे दल ही चुनावी फैसलों पर स्थिर नजर आएंगे।