‘डिजिटल इंडिया’ का नारा लगाने वाले पीएम मोदी को ‘डिजिटल मीडिया’ का भय क्यों सता रहा

मोदी-शाह की भाजपा ने सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और इस हथियार से अपने विरोधियों पर वार कर दो लोकसभा एवं दर्जनों विधानसभा व निकाय चुनाव जीते.

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात से केंद्र की सत्ता तक पहुंचने के लिए मीडिया को अपना हथियार बनाया. फिर अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए मेनस्ट्रीम मीडिया का इस्तेमाल वास्तविकता छुपाने और सरकारी योजनाओं की वाहवाही के लिए किया. वहीं सोशल मीडिया के माध्यम से बूथ स्तर पर अपनी पहुंच बनाई और पार्टी को मजबूत कर अपने पक्ष में देशव्यापी चुनावी माहौल तैयार किया.

मोदी-शाह की भाजपा ने सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और इस हथियार से अपने विरोधियों पर वार कर दो लोकसभा एवं दर्जनों विधानसभा व निकाय चुनाव जीते. इसकी सफलता से उत्साहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘नया भारत’ को डिजिटली सशक्त बनाने का फैसला किया और ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा दिया. इस अभियान को सफलता भी मिली. अब जब भारत सच में डिजिटल बन गया है तो उन्हें इससे खतरा महसूस होने लगा है. पीएम मोदी को डर सताने लगा है कि उनका फेवरेट हथियार सोशल मीडिया कहीं बैकफायर न कर दे.

इसका डर का ताजा उदाहरण है, ‘आईटी नियमों में संशोधन का नया प्रस्ताव‘. वैसे तो यह प्रस्ताव गुजरात दंगों पर हाल में आई बीबीसी की विवादित डॉक्यूमेंट्री के ठीक बाद लाया गया. पर इसका संबंध सिर्फ डॉक्यूमेंट्री से नहीं है क्योंकि उसे सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास पहले से मौजूद अधिकार आईटी नियम, 2021 के नियम-16 में दर्ज आपातकालीन प्रावधानों के तहत आदेश जारी कर सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से ब्लॉक करवा दिया गया.

नए मसौदे में प्रावधान किया गया है कि प्रेस इनफॉरमेशन ब्यूरो(पीआईबी) की फैक्ट चेकिंग इकाई अगर किसी भी खबर को ‘झूठी या भ्रामक’ के रूप में चिन्हित करती है तो उसे सोशल मीडिया समेत सभी प्लेटफार्मों से हटाना अनिवार्य होगा. यह काम पीआईबी के डायरेक्टर, एडीशनल डायरेक्टर जनरल और डिप्टी डायरेक्टर समेत समेत पांच बड़े अधिकारी की निगरानी में होगा. मतलब पूरी पीआईबी अब मुख्य रूप से फैक्ट चेक ही किया करेगी.

सरकार के डर की वजह

दरअसल अब मेनस्ट्रीम मीडिया से लोगों का भरोसा उठ रहा है. टीवी चैनलों पर होने वाले भड़काऊ बहसों को लोगों ने देखना कम कर दिया है. पहले न्यूज़ चैनलों के माध्यम से जो खबरें एकतरफा ढंग से जनता तक पहुंच रही थी, डिजिटल मीडिया का प्रभाव बढ़ने के बाद कम हो गया है.

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वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेई कहते हैं,मेनस्ट्रीम मीडिया का अपना एक बिजनेस मॉडल है. इसी मॉडल के कारण सरकार ने आसानी ने उसे अपने कंट्रोल में कर लिया. डिजिटल मीडिया का कोई ठोस बिजनेस मॉडल नहीं है. यह बिजनेस मॉडल के बजाय टेक्नोलॉजी पर आधारित है. इसीलिए सरकार का इस पर कोई वश नहीं चलता.

सरकार को दिक्कत है कि लोगों के जिन मुश्किलों को मेनस्ट्रीम मीडिया ने दिखाना बंद कर दिया, उसे डिजिटल मीडिया अपनी चर्चाओं में जगह दे रही है. डिजिटल प्लेटफॉर्म पर पत्रकार खुलकर अपनी बातें रख रहे हैं. लोगों की समस्याएं उठा रहे हैं और सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं.


कानून का दुरुपयोग

अब इस कानून के माध्यम से सरकार के अनुकूल जो चीजें नहीं होगी उसे पीआईबी के माध्यम से फैक्ट पर सवाल खड़े कर बंदिशें लगा दी जाएगी. वाजपेई ने अंदेशा जताया कि वास्तव में इस कानून की शक्ति का उपयोग पीआईबी नहीं बल्कि बीजेपी का आईटी सेल करेगी. आईटी सेल डिजिटल मीडिया में चल रही खबरों की मॉनिटरिंग करेगी और पीआईबी के माध्यम से उस पर रोक लगावाएगी.

विरोधी पार्टियों का डिजिटल कैंपेन कमजोर करेगी

सरकार इस कानून का और किस तरह इस्तेमाल कर सकती है इसके लिए 2019 लोकसभा चुनाव से जुड़ी दो खबरों को समझिए. पहली खबर थी, ‘पहले चरण के मतदान से दस दिन पहले 1 अप्रैल को फेसबुक ने कांग्रेस से जुड़े 687 पेजों को अपने प्लेटफार्म से हटा दिए. दूसरी खबर चुनाव के सालभर बाद आई. जुलाई 2020 में फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि ‘भाजपा-आरएसएस ने 2019 लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान अल्पसंख्यकों को लेकर फेक न्यूज फैलाई, लव जिहाद जैसे मुद्दों को हवा दी’. रिपोर्ट में कहा गया कि 2019 लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान ‘एंटी-मायनॉरिटी’ और ‘एंटी-मुस्लिम’ जैसे पोस्टों की भरमार थी.

मतलब यह हुआ कि फेसबुक ने कांग्रेस से जुड़े पेज तो हटा दिए लेकिन बीजेपी की आईटी सेल से जुड़े पेजों पर कोई एक्शन नहीं लिया. वह बेरोकटोक चलते रहा. बाद में अगस्त 2020 में अमेरिकी अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ ने अपने लेख में दावा किया कि भारत में फेसबुक सत्ताधारी बीजेपी के नेताओं के हेट स्पीच और आपत्तिजनक सामग्री को लेकर “कोताही बरतता” है.

इस खबर के बाद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फेसबुक की काफी किरकिरी हुई थी. इस कारण शायद फेसबुक अब राजनीतिक गतिविधियों वाली सामग्रियों पर सीधा हस्तक्षेप करने से कतरा रहा हो. तो अब फेसबुक के बजाय सरकार खुद अपने अधीन संस्था पीआईबी के जरिए विपक्षी पार्टियों के आईटी सेल सहित डिजिटल मीडिया में चल रही तमाम सरकार विरोधी खबरों को रोकने की तैयारी में है.

यह फेसबुक के लिए भी मुफीद रहेगा क्योंकि यह काम वह अपने रिस्क पर नहीं बल्कि सरकार के निर्देश पर कानून के दायरे में रहकर करेगी. पीआईबी सरकार विरोधी खबरों को भ्रामक और झूठी बताकर फेसबुक को इसकी लिस्ट सौंपेगी, फिर फेसबुक उसके आधार पर पोस्ट डिलीट करेगा. सरकार से सवाल-जवाब तो फेसबुक न पहले करती थी न आगे करेगी, क्योंकि उसे यहां कारोबार करना है.

बात रही पीआईबी की फैक्ट चेकिंग इकाई की विश्वसनीयता की तो इंटरनेशनल फैक्ट चेकिंग नेटवर्क में फैक्ट-चेकर्स के लिए “गैर-पक्षपात और निष्पक्षता के प्रति प्रतिबद्धता” की आवश्यकता होती है ताकि वे किसी एक तरफ “अनावश्यक ध्यान केंद्रित” न करें.

पर यहां मामला मानदंड के बिल्कुल उलट है. 2019 में अपनी स्थापना के बाद से पीआईबी की फैक्ट चेकिंग इकाई ने जिन खबरों को भ्रामक या झूठे चिन्हित किए, उसमें ज्यादातर के कोई कारण भी नहीं बताए. उल्टे पीआईबी पर एलएसी पर चीनी सैनिकों की घुसपैठ मामले में गलत जानकारी ट्वीट करने का आरोप लग चुका है. इस पर न्यूजलॉन्ड्री की एक पूरी रिपोर्ट है.

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