देश में पहली बार बाड़मेर जिले के जसोल में एक दंपती ने एक साथ संथारा ग्रहण किया है, यानी एक साथ देह त्यागने की इच्छा। पति पुखराज संखलेचा (83) का संथारा 14 जनवरी को पूर्ण हो चुका है। अब उनकी पत्नी गुलाबी देवी भी इसी राह पर हैं। पति-पत्नी के एक साथ ‘संथारा’ लेने की चर्चा देशभर में है। जैन समाज में इसे लेकर एक उत्सव जैसा माहौल है।
जिस संथारा को जैन समाज में मोक्ष प्राप्ति का रास्ता मानकर देह त्यागी जाती है, उसे लेकर एक बहुत बड़ा विवाद तक हो चुका है। हमेशा जैन समाज के आंदोलनों में अगुआ रहने वाले राजस्थान से ही ये विवाद शुरू हुआ था। तब पहली बार ‘संथारा’ को आत्महत्या बताते हुए एक याचिका राजस्थान हाईकोर्ट में दाखिल हुई थी।
बवाल तब हुआ जब राजस्थान हाईकोर्ट ने याचिका पर जजमेंट देते हुए संथारा को गैरकानूनी करार दे दिया। कोर्ट ने आदेश दिया कि संथारा लेने वालों और प्रेरित करने वालों के खिलाफ सुसाइड की धाराओं में मुकदमे चलाए जाएं। तब सड़कों पर उतरे जैन समाज के लोगों ने सामूहिक मुंडन करवा लिए थे। इस विवाद के थमने में 21 दिन लग गए।
संडे स्टोरी में जानिए कि हाईकोर्ट ने संथारा पर रोक क्यों लगाई और सुप्रीम कोर्ट ने 21 दिन बाद स्टे क्यों लगा दिया?
साल 2006 में ऐसा क्या हुआ कि संथारा का मामला पहली बार कोर्ट तक पहुंचा?
वकील ने याचिका दायर कर कहा – ये आत्महत्या, धर्म नहीं छीन सकता जीने का अधिकार।
साल 2006 में कैंसर से जूझ रही जयपुर की एक महिला विमला देवी को एक जैन मुनि ने संथारा की अनुमति दी। विमला देवी ने 22 दिनों तक अन्न-जल छोड़कर देह त्याग दी थी।
इसी मामले को लेकर साल 2006 में जयपुर के एक प्रैक्टिसिंग वकील निखिल सोनी ने राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बेंच में संथारा प्रथा के खिलाफ जनहित याचिका दायर की।
याचिकाकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर करते हुए संथारा को सती प्रथा की तरह आत्महत्या वाला कदम बताते हुए चुनौती दी।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया- संथारा जीने के संवैधानिक अधिकार के खिलाफ
तब याचिकाकर्ता निखिल सोनी ने कहा था कि ‘संथारा लेने वाला शख्स अन्न-जल छोड़ देता है। मृत्यु का इंतजार करता है। इसे धार्मिक आस्था कहना गलत है। आस्था की कानून में कोई जगह नहीं है।
भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को जीने का अधिकार देता है और धर्म को किसी के जीवन के अधिकार का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
इसलिए इसे अवैध घोषित कर ऐसा करने वालों के खिलाफ IPC 309 (आत्महत्या करने पर) और IPC 306 (आत्महत्या के लिए प्रेरित करने) के तहत आपराधिक मुकदमे चलने चाहिए।
इस जनहित याचिका में सोनी ने जैन श्रावक संघ व श्री श्वेतांबर जैन श्रीमाल सभा मोती डूंगरी दादाबाड़ी सहित अन्य को पक्षकार बनाया।
याचिताकर्ता ने कोर्ट में दिए संथारा के ये उदाहरण
- 7 अक्टूबर 1993 को सोहन कुमारी ने संथारा का व्रत कराया और उनका उपवास 20 दिनों तक चला।
- नवंबर 1994 में प्रेमजी हीरजी पर्व- 212 दिनों तक उपवास के बाद संथारा किया।
- 1997 में जेठालाल झवेरी का उपवास 42 दिनों तक चला।
- 10 जनवरी 1997 निर्मलानंद का उपवास तीन सप्ताह तक चला।
- अक्टूबर 2000 अहमदाबाद में हरलालजी भैरुलालजी मेहता का संथारा उपवास 23 दिनों तक चला।
- साध्वी निर्भय वाणी ने 24 मई 2003 को 20 दिन का उपवास रखा।
- 24 मई 2003 को तेरापंथ धर्म संघ, उदासर बीकानेर, राजस्थान के मुनि मतिरियाजी महाराज ने 35 दिनों का संथारा उपवास किया।
9 साल तक चली सुनवाई, सरकार ने दिए ये तर्क
निखिल सोनी की याचिका पर सुनवाई करते हुए 22 सितंबर 2006 को पहली बार मामले में जयपुर पुलिस सहित सभी पार्टी को नोटिस जारी किए। इसके बाद 6 अगस्त 2008 से ये मामला सुनवाई पर आया।
याचिका के जवाब में तत्कालीन राज्य सरकार की तरफ से कहा गया कि संथारा जैन समाज की प्राचीन काल से चली आ रही एक धार्मिक प्रथा है।
भारत का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है। वहीं याचिकाकर्ता ने महज अखबारों की कटिंगों के सहारे इसे अवैध घोषित करने की मांग की है, जबकि वो इसे सती प्रथा की तरह महिमा मंडन वाली प्रथा साबित नहीं कर पाया है।
सती प्रथा किसी भी धर्म के अनुसार एक धार्मिक प्रथा नहीं है, जबकि संथारा एक धार्मिक प्रथा है।
– तत्कालीन एडिशनल एसपी जयपुर (पूर्व), ओमप्रकाश शर्मा ने जवाब पेश कर कहा कि याचिकाकर्ता ने ऐसा कोई भी उदाहरण अब तक रिकॉर्ड में पेश नहीं किया है कि जिससे संथारा को आत्महत्या जैसा अपराध माना जाए।
न कोई ऐसा उदाहरण बताया है, जहां संथारा बलपूर्वक या जबरदस्ती दिलाया जा रहा हो। ये धार्मिक प्रथा नहीं है, इसे भी याचिकाकर्ता साबित नहीं कर पाया है।
ऐसे में जब तक कोई शिकायत न हो तो जांच नहीं की जा सकती है और धार्मिक एक्टिविटी का पालन अपराध भी नहीं है।
जैन समाज ने भी कोर्ट में रखे पक्ष
जैन अनुयायियों ने धार्मिक आस्था का हवाला देकर अदालत से इस मामले में दखल नहीं देने को कहा था। वहीं, याचिकाकर्ता का कहना था कि यह संविधान के खिलाफ है।
– पक्षकार बनाए गए स्थानकवासी जैन श्रावक संघ जयपुर के सचिव विमल चंद दागा ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका को लेकर जो गाइडलाइन बना रखी है, उसके मुताबिक याचिकाकर्ता PIL दायर करने का अधिकारी नहीं है। उसके उठाए गए मुद्दे न्यायसंगत और तर्कसंगत ही नहीं है।
– याचिकाकर्ता जैन समाज के धार्मिक दर्शन से पूरी तरह अनजान है। उसके लगाए गए सभी आरोप झूठे और बेबुनियाद हैं। संथारा या सल्लेखना किसी भी रूप में सुसाइड नहीं है। बल्कि ये तो आत्म शुद्धि के जरिए जन्म और मृत्यु के चक्रों से मुक्ति पाने का तरीका है।
– याचिका में जवाब के दौरान बताया गया कि जैन शास्त्रों के अनुसार संथारा का अर्थ शरीर की ताकत कमजोर करना होता है। उपवास द्वारा मृत्यु की लालसा के बिना शारीरिक अस्तित्व को मिटाना होता है। यह तब होता है जब किसी व्यक्ति का सामना अपरिहार्य प्राकृतिक आपदा, गंभीर सूखे, बुढ़ापे या लाइलाज बीमारी से होता है।
– इस व्रत को अपनाने के लिए प्रेम, घृणा, साहचर्य और सांसारिकता की सभी भावनाएं त्यागनी होती हैं। इस व्रत को लेने से पहले जैन समाज के ही गुरु मुनि से चर्चा कर उनकी अनुमति लेनी होती है। इसे जीवन को खत्म करने के एक कदम के रूप में मानना पूरी तरह से गलत है। ये जैन समाज की प्राचीन धार्मिक परंपरा है। ये एक तरह से खुद को पवित्र करने की एक स्वैच्छिक प्रतिज्ञा है।
याचिका के जवाब में बताया- संथारा और सुसाइड में बहुत बड़ा अंतर है
- जब व्यक्ति मानसिक तनाव में हो तो वो सुसाइड करता है।
- जब व्यक्ति अपमान, डर या गुस्से के भाव से भर जाता हो तो सुसाइड करता है।
- अपमान, पीड़ा, सजा या कलंक जैसे परिणामों से बचने और इनका सामना करने के डर से भी व्यक्ति सुसाइड करता है।
- धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों से बहुत दूर हो तो व्यक्ति सुसाइड करता है।
- सुसाइड के लिए प्री प्लांड हथियार या संसाधनों का उपयोग किया जाता है।
- सुसाइड मामलों में मौत अचानक/तुरंत हो जाती है, जबकि उसे बचा न लिया गया हो।
- आत्महत्या के लिए गोपनीयता रखी जाती है और ये परिवार के लोगों और दोस्तों के लिए दुःख का कारण होता है।
हाईकोर्ट ने कहा- संथारा लेने और दिलाने वाले पर आपराधिक केस चले
आखिर में 10 अगस्त 2015 को आदेश देते हुए कहा कि ‘सुनवाई के दौरान किसी भी जैन शास्त्र, उपदेश, लेख या जैन तपस्वियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रथाओं से ये साबित नहीं हो पाया कि संथारा और सल्लेखना एक आवश्यक धार्मिक प्रैक्टिस है और न ही मोक्ष और अमरता पाने के लिए ये एकमात्र तरीका है।
ये जैन दर्शन का अनिवार्य हिस्सा भी नहीं है। संविधान के आर्टिकल 25 में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत धार्मिक प्रैक्टिस की जा सकती है पर संविधान के ही आर्टिकल 21 के तहत देश के प्रत्येक व्यक्ति को जीने का अधिकार भी मिला हुआ है। इसके तहत कोई भी अपना या दूसरे का जीवन समाप्त नहीं कर सकता है। भले ही ये धार्मिक प्रैक्टिस के तहत हो।
राजस्थान हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सुनील अंबवानी और जस्टिस वी.एस. सीराधना की दो सदस्यीय खंडपीठ ने राज्य सरकार को संथारा पर रोक लगाने का आदेश देते हुए कहा था कि अब से संथारा लेने और दिलाने वाले, दोनों के खिलाफ आपराधिक केस चले। जैन समुदाय की इस प्रथा के तहत अन्न जल त्याग कर मृत्यु का वरण करना दंडनीय माना जाएगा। संथारा लेने वालों के खिलाफ IPC की धारा 309 यानी आत्महत्या का आपराधिक मुकदमा हो और उकसाने पर धारा 306 के तहत कार्रवाई की जाए।
जैन समाज सड़कों पर उतरा, संतों ने भी दिखाया गुस्सा
राजस्थान हाईकोर्ट के इस आदेश से 26 दिन पहले ही बीकानेर की रहने वाली 82 वर्षीया बदाना देवी डग्गा ने 16 जुलाई 2015 के दिन संथारा ग्रहण किया था। इस आदेश के बाद उनकी ये प्रैक्टिस एकदम से अवैध हो गई थी।
वहीं उनके संथारा के 40वें दिन बीकानेर की ही एक जैन साध्वी सुंदर कंवर ने अपने संथारा ग्रहण करने के तीसरे दिन ही देह त्याग दी थी। इसके बाद बीकानेर सहित देश के कई शहरों में जैन समाज के लोग सड़कों पर उतर गए।
तब चर्चित जैन मुनि दिवंगत तरुण सागर ने कहा था कि, संथारा आवेश में आकर किया जाने वाला काम नहीं है। बल्कि ये एक सनातन क्रिया है जिसमें व्यक्ति को पूरी तरह से भोजन त्यागने में लंबा समय लगता है।
जैन समाज ने विरोध प्रदर्शन के साथ ही राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 31 अगस्त 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने जैन समुदाय को अंतरिम राहत देते हुए संथारा प्रथा पर राजस्थान हाईकोर्ट के बैन लगाने के फैसले पर रोक लगा दी और एक्स पार्टी स्टे दे दिया। तब से ये मामला सुप्रीम कोर्ट में है।
संथारा से मौत के बाद नहलाया भी नहीं जाता, पढ़िए रोचक फैक्ट्स
जैन धर्म में दो पंथ हैं, श्वेतांबर और दिगंबर। संथारा श्वेतांबरों में प्रचलित है और दिगंबर इस परंपरा को सल्लेखना कहते हैं। जैन समाज में जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह जैन मुनि की अनुमति से खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है।
इसके बाद धीरे-धीरे मृत्यु को वरण कर लेता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को समाधिमरण, पंडितमरण अथवा संथारा भी कहा जाता है।
- संथारा से मृत्यु होने के बाद व्यक्ति को नहलाया नहीं जाता है। उसके शरीर को गुलाब जल से पोंछकर सफेद कपड़े पहनाए जाते हैं।
- अर्थी बनाने के लिए कारपेंटर को बुलाया जाता है। अर्थी पर मृतक को समाधि की अवस्था में बैठाकर बांध दिया जाता है।
- हाथ में चांदी की माला दी जाती है। सिर और मुखवस्त्रिका (सफेद मास्क की तरह होता है, जिसे मुंह पर लगाया जाता है) पर केसर से स्वास्तिक बनाया जाता है।
- अर्थी में सूखे गुलाब की पत्तियां डाली जाती हैं। चंदन की अगरबत्ती लगाई जाती है। पांच चांदी के कलश लगाए जाते हैं।
- घर के सभी सदस्य श्मशान तक जाते हैं। सभी अरिहंत नाम सत्य है बोलते हैं।
- संथारा लेने वालों का अंतिम संस्कार चंदन की लकड़ी और घी से किया जाता है। उसमें कपूर और केसर भी डाला जाता है।
- संथारा ग्रहण करने वालों के लिए दाह संस्कार की जगह आम लोगों के दाह संस्कार वाली जगह से दूर होता है।
अब याचिकाकर्ता सोनी बोले- मामले में अब कुछ नहीं बचा
हाईकोर्ट में संथारा के खिलाफ याचिका दायर करने वाले जयपुर के निखिल सोनी का कहना है कि फिलहाल ये सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है। अब इस मामले में कुछ नहीं बचा है और ये मुद्दा ही खत्म हो गया है। वो इस मामले पर ज्यादा बात भी नहीं करना चाहते हैं।
याचिकाकर्ता निखिल सोनी के वकील माधव मित्र ने बताया कि हमने संथारा के कई मामले देखे। सामने आया कि जैन समाज की यंग जनरेशन अपनी ओल्ड जनरेशन को संथारा दिलाती है।
इस दौरान अगर वो मना करना भी चाहे तो ये उनके लिए संभव नहीं होता है। संथारा लेने वाले के घर परिवार में इतना भजन कीर्तन और शोर शराबा कर दिया जाता है कि संथारा ले रहे शख्स की आवाज भी बाहर नहीं आ पाती। ऐसे में इसके खिलाफ जनहित याचिका लगाई गई थी।