सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने मजिस्ट्रेट दयाल ने 1977 में इंदिरा का समर्थन किया था, जिसे मोरारजी देसाई सरकार के चेहरे पर ‘थप्पड़’ और गांधी के लौटने के रूप में देखा गया था.
सिक्किम हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रिपुसूदन दयाल के निधन की हालिया खबर, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मदद करने वाले लोगों के प्रति कृतज्ञता को याद करने का अवसर देती है. 1977 के लोकसभा चुनाव में हारने के तुरंत बाद, गांधी के विभिन्न कृत्यों और चूक के लिए उन्हें न्याय दिलाने की मांग शुरू हो गई थी. 1975 के आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए मोरारजी देसाई सरकार के तहत शाह आयोग की स्थापना की गई थी. गुप्ता आयोग को संजय गांधी की मारुति परियोजना की जांच करने के लिए कहा गया था.
भ्रष्टाचार के आरोप में इंदिरा को गिरफ्तार करने की मांग की गई, लेकिन मोरारजी देसाई सरकार एक निर्विवाद मामला बनाकर सावधानी से आगे बढ़ना चाहती थी. प्रधानमंत्री, गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह और कानून मंत्री शांति भूषण सभी का मत था कि किसी तरह की चूक नहीं होनी चाहिए.
आखिरकार, 3 अक्टूबर 1977 को उनके चार पूर्व कैबिनेट सहयोगियों के साथ दो मामलों में इंदिरा को गिरफ्तार कर लिया गया. पहले मामले में, उन पर 1977 के चुनाव के प्रचार के लिए जीप हासिल करने के मकसद से साजिश और आधिकारिक पद के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया था; उनके सहयोगी पी.सी. सेठी और पांच अन्य को भी आरोपी बनाया गया था. दूसरे मामले में, उन पर तेल और प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) द्वारा एक अपतटीय कॉन्ट्रैक्ट में एक फ्रांसीसी कंपनी का पक्ष लेने का आरोप लगाया गया था.
चूंकि, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की टीम उनका इंतज़ार कर रही थी, कांग्रेस के समर्थक नई दिल्ली में इंदिरा के विलिंगडन क्रिसेंट आवास पर इकट्ठा हुए और विरोध में नारे लगाने लगे. इंदिरा ने ज़मानत की पेशकश से इनकार कर दिया और कहा कि उन्हें हथकड़ी लगाकर ले जाया जाना चाहिए – बेशक, ऐसा कुछ हुआ नहीं. उन्होंने किंग्सवे कैंप में पुलिस अधिकारियों की मेस में रात बिताई और अगले दिन रिपुसूदन दयाल के समक्ष उनकी पेशी हुई, जो उस समय, अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (एसीएमएम) थे.
फ्रैंक एंथोनी, घोर एंग्लो-इंडियन वकील और सांसद उनके लिए उसी तरह पेश हुए जैसे वह शाह आयोग के सामने पेश हुए थे. अभियोजन पक्ष को मुश्किलों का सामना करना पड़ा और कुछ दिन की सुनवाई के बाद दयाल ने कहा कि ऐसा कोई मामला नहीं बनता है. उन्होंने देखा, “आरोप के स्रोत का खुलासा नहीं किया गया है, और अब तक कोई दस्तावेज़ी या मौखिक सबूत एकत्र नहीं किए गए हैं.” इसलिए उन्होंने तत्काल इंदिरा की रिहाई के निर्देश दे दिए.
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एक साधारण मजिस्ट्रेट द्वारा सरकार के चेहरे पर इस ‘थप्पड़’ को उस समय कई लोगों ने मोरारजी देसाई सरकार के पतन और इंदिरा गांधी के लौटने की कवायद माना था, बेशक इंदिरा ने मार्च 1980 में वापसी की.
रिपुसूदन दयाल का उदय
इंदिरा रिपुसूदन दयाल को भूली नहीं थीं, लेकिन उनका आभार व्यक्त करने के लिए वे तत्काल कुछ नहीं कर सकती थीं क्योंकि उन्होंने अभी तक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के स्तर तक अपनी पदोन्नति हासिल नहीं की थी. दयाल 1966 में उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा और बाद में दिल्ली न्यायिक सेवा में शामिल हुए. वह केवल 1979 में अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश बने, और हाईकोर्ट में प्रमोटेड होने से पहले उन्होंने उच्च न्यायिक सेवा में लगभग डेढ़ दशक बिताया.
लेकिन इंदिरा गांधी उन्हें तुरंत इनाम देना चाहती थीं. शुरुआत में, उनका नाम राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री द्वारा उड़ीसा हाई कोर्ट के लिए प्रस्तावित किया गया, और मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से प्रस्ताव का समर्थन किया था. उड़ीसा हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के कड़े विरोध ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, लेकिन दयाल को ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा. मई 1984 में, 43 वर्ष की आयु में, उन्हें सिक्किम हाई कोर्ट में न्यायाधीश नियुक्त किया गया, जो कि किसी भी राज्य की न्यायिक सेवा का सदस्य सपने में भी नहीं सोच सकता था.
दयाल 11 साल तक इस पद पर रहे. उसके बाद 1995 में उनका ट्रांसफर इलाहाबाद हाईकोर्ट में कर दिया गया. दो साल बाद, उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया. उनके न्यायिक करियर का चरम बिंदु फरवरी 1999 में सिक्किम हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति थी. मई 2003 में रिटायर्ड होने से पहले दयाल चार साल तक उस पद पर रहे, लेकिन इस समय एक और पद उनकी राह देख रहा था. वे मध्य प्रदेश के लोकायुक्त नियुक्त किए गए और इस पद पर उन्होंने छह साल तक काम किया. हालांकि, यहां उनका कार्यकाल विवादों से घिरा रहा.
वकीलों के प्रति आभार
इंदिरा गांधी अपने वकीलों को भी नहीं भूलीं थीं, के.जी भगत दिल्ली की आपराधिक अदालतों में प्रैक्टिस कर रहे थे और जब इंदिरा सत्ता में नहीं थी, तो विभिन्न मामलों में उनके लिए खड़े भी हुए थे. सत्ता में वापसी करने के तुरंत बाद, इंदिरा ने उन्हें राज्य की कांग्रेस सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में बिहार के स्थायी वकील के रूप में नियुक्त किया. इसके तुरंत बाद, भगत को भारत का अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल नियुक्त किया गया.
आपातकाल के बाद की अवधि के दौरान इंदिरा की कानूनी टीम में दूसरे वकील जिनका आभार व्यक्त किया गया, एचआर भारद्वाज थे. उन्हें सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश के लिए स्थायी वकील बनाया गया. इसके तुरंत बाद उनका राजनीतिक करियर शुरू होने वाला था. 1982 में, वे मध्य प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गए, उन्होंने विभिन्न कांग्रेस सरकारों के तहत राज्य मंत्री और केंद्रीय कानून मंत्री दोनों के रूप में कार्य किया. कर्नाटक में, उन्होंने 2009 से 2014 तक राज्यपाल के रूप में पूरे पांच साल का कार्यकाल भी पूरा किया.